पहली विश्व युद्ध और भारतीय सैनिकों का संघर्ष और उन संघर्षो की कहानियाँ

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारतीय सैनिकों ने न केवल युद्धभूमि पर वीरता दिखाई, बल्कि कठिन परिस्थितियों में भी अपनी दृढ़ता का परिचय दिया। सूखे और पहाड़ी क्षेत्रों में लड़ने के आदी ये सैनिक जब फ्रांस और बेल्जियम के गीले, कीचड़ भरे खाइयों में पहुंचे, तो उनके लिए यह एक कठिन परीक्षा साबित हुई। गर्मियों के सूती कपड़ों में आए इन सैनिकों को सर्दी और बारिश से जूझना पड़ा। कई सैनिक ठंड और निमोनिया का शिकार हुए, तो कुछ खाई में खड़े रहने के कारण ‘ट्रेंच फीट’ से पीड़ित हो गए, जिससे इलाज न होने पर पैर काटने तक की नौबत आ जाती थी।
नरक कीचड़ से भरा हुआ था, आग से नहीं
फ्रांस के एक जर्नल Le Bochofage ने मार्च 1916 में लिखा, “नरक आग से नहीं, बल्कि कीचड़ से भरा हुआ था।” इस पंक्ति ने भारतीय सैनिकों की स्थिति को स्पष्ट कर दिया।
इन कठिन परिस्थितियों के बावजूद भारतीय सैनिकों ने कई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। नेव-चैपल, गिवेंसी-ले-बासी, फेस्टुबेर्ट, औबर्स रिज और लूज की लड़ाइयों में उनकी बहादुरी देखी गई। हालाँकि, संगठन और प्रशिक्षण की कुछ कमियों के कारण चुनौतियाँ बनी रहीं। युद्ध में हताहत हुए सैनिकों की जगह उसी जातीय समूह के अन्य सैनिकों को लाना कठिन था और ऐसे अधिकारी मिलना मुश्किल थे जो सैनिकों की भाषा समझते हों। इसके बावजूद भारतीय सैनिकों ने वीरता, धैर्य और साहस का परिचय दिया, जो उनकी पहचान बन गया।
ख़ुदादाद ख़ान: पहले भारतीय विक्टोरिया क्रॉस विजेता
129वीं बलूच बटालियन और 57वीं वाइल्ड राइफल्स को लाहौर डिवीजन से यप्रेस (Ypres) में भेजा गया। अक्तूबर-नवंबर 1914 में हुई इस लड़ाई में 129वीं बलूच बटालियन के सिपाही ख़ुदादाद ख़ान ने अपनी मशीन गन से तब तक फायरिंग जारी रखी जब तक कि उनका स्थान जर्मन सैनिकों ने पूरी तरह घेर नहीं लिया। इस अद्वितीय वीरता के लिए उन्हें ब्रिटेन का सर्वोच्च वीरता पुरस्कार विक्टोरिया क्रॉस दिया गया, जिससे सम्मानित होने वाले वह पहले भारतीय सैनिक बने।
नायक दरवान सिंह ने दिखाया अद्भुत साहस
नवंबर 1914 में 39वीं गढ़वाल राइफल्स की पहली बटालियन को जर्मनों द्वारा कब्जा किए गए खाइयों को वापस लेने का आदेश मिला। नायक दरवान सिंह, जो अग्रिम पंक्ति में थे, गंभीर रूप से घायल होने के बावजूद तब तक नेतृत्व करते रहे जब तक कि सभी खाइयों को खाली नहीं करा लिया गया। उनकी वीरता के लिए उन्हें भी विक्टोरिया क्रॉस से सम्मानित किया गया।
युद्ध में जहरीली गैस और भारतीय सैनिकों का संघर्ष
अप्रैल 1915 में यप्रेस की दूसरी लड़ाई में पहली बार रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया गया। क्लोरीन गैस के प्रभाव का सामना करने वाले पहले सैनिकों में भारतीय भी शामिल थे। यह घातक गैस सांस लेने पर फेफड़ों को जला देती थी और हजारों सैनिकों की मौत का कारण बनी।
युद्ध से भेजे गए पत्र: सैनिकों की पीड़ा और वीरता
ब्रिटिश लाइब्रेरी द्वारा जारी किए गए सैनिकों के पत्रों से उनके अनुभवों की झलक मिलती है। लुधियाना के एक सैनिक ने अपने परिवार को लिखा:
“मेरी मौत पर दुखी मत होना क्योंकि मैं हथियार हाथ में लिए हुए योद्धा की तरह मरूंगा। इससे अधिक खुशहाल मृत्यु और कोई नहीं हो सकती। मुझे सिर्फ इस बात का अफसोस है कि मैं अपने परिवार की जिम्मेदारियाँ पूरी नहीं कर सका।”
गढ़वाली भाषा में लिखे एक अन्य पत्र में एक सैनिक ने लिखा:
“पिताजी, इन बमों को सहन करना बहुत कठिन है। यहाँ से कोई सुरक्षित लौटेगा, इसकी कोई गारंटी नहीं। जिसे भाग्यशाली होना होगा, वही अपने माता-पिता को दोबारा देख पाएगा। यहाँ गोलियाँ और तोप के गोले ऐसे गिरते हैं जैसे बर्फ गिरती है। कीचड़ हमारी कमर तक भरी हुई है।”
युद्ध की विरासत
इन भारतीय सैनिकों की वीरता को आज भी याद किया जाता है। फ्रांस और बेल्जियम के कई युद्ध स्मारकों में उनकी यादें संजोई गई हैं। प्रथम विश्व युद्ध में भारतीय सैनिकों ने लगभग 74,000 बलिदान दिए और 1,30,000 से अधिक सैनिक यूरोपीय युद्धभूमि पर तैनात किए गए।
उनकी बहादुरी और बलिदान ने भारत की सैन्य परंपरा को और भी गौरवशाली बना दिया। आज, जब भी हम किसी सैनिक को सलाम करते हैं, हमें उन वीर नायकों की याद करनी चाहिए जिन्होंने विपरीत परिस्थितियों में भी अपने साहस और कर्तव्यपरायणता का परिचय दिया।







